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Author: admin
राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली
राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली
हमारा लक्ष्य राष्ट्रीय शिक्षाप्रणाली का विकास करना है ।
राष्ट्रीय शिक्षा प्रणाली का आषय ठीक प्रकार समझने के लिए राष्ट्र की संकल्पना को समझना होगा ।
राष्ट्र – एक प्रकृति सिद्ध भूखण्ड जिसमें निवास करने वाला, उसका पुत्र रुपी समाज, धर्म का आचरण करने वाले सभी ऋषि, मुनि, संत, महंत , मनीषी, महापुरुष एवं उनका अनुशरण करने वाा साधारण समाज इन सभी की युगों -युगों तक विकास की जो प्रक्रिया चली उससे जो जीवन शैैली बनी उसे संस्कृति कहा गया ।
इस प्रकार कोई भी राष्ट्र 4 तत्वों से मिलकर बनता है:-
1.प्रकृति सिद्ध भूखण्ड
2. पुत्ररुपी समाज
3.धर्म
4. संस्कृति
हमारे राष्ट्र की भूमि का निर्माण स्वयं देवताओं ने किया है हमने इसे माता माना है ।
उत्तरंयत् सुमद्रस्थ, हिमाद्रेष्चैव दक्षिणाम् ।
वर्षतद् भारत नाम भारती यत्र संतति ।।
माताभूमिः पुत्रोहमं पृथिव्याः ।
धारणात् धर्मइत्याहुः धर्मो धारयतेप्रजाः ।
सृष्टि के नियम ही धर्म हे । परिवार समाज, पिता, पुत्र, माता, पत्नी आदि धर्म की कल्पना हैं । धर्म का सामान्य अथ प्रकृति अनुरुप , समाज सुखकारी कर्तव्य पालन है।
किसी राष्ट्र की आत्मा उसकी संस्कृति होती है अतः संस्कृति के आधार पर षिक्षा हेानी चाहिए । जिसे हम संस्कृति कहते है यही मानव संस्कृति हैं हिन्दू संस्कृति अनुरुप भारत की षिक्षा प्रणाली की स्थापना होनी चाहिए ।
1. संस्कारपूर्ण शिक्षा व्यवस्था – शिशु मंदिर योजना
2. पंचकोषात्मक विकास आधारित शिक्षा – सर्वांगीण विकास ।
3. पंचमुखी शिक्षा – व्यवसायिक , जीवकोपार्जन युक्त आधार ।
आधारभूत विषय शिक्षण
आधारभूत विषय शिक्षण
बालक के सर्वांगीण विकास हेतु केन्द्रीय पाठ्यक्रम:- राष्ट्रीय एकात्मता एवं बालक के सर्वांगीण विकास की दृष्टि से पांच विषयों के केन्द्रीय पाठ्यक्रम निर्धारित किये गये है ।
(1) शारीरिक शिक्षा
(2) योग शिक्षा
(3) संगीत शिक्षा
(4) संस्कृत शिक्षा
(5) नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा
पांच आधारभूत विषय
शारीरिक शिक्षा
बालक बलवान बने, बलिष्ठ बने, अच्छा खिलाड़ी बने, उसकी शारीरिक क्षमताओं का विकास हो, ऐसा बालक ही देश और धर्म की रक्षा कर सकेगा. विद्या भारती के सभी विद्यालयों में सभी बालक शारीरिक दृष्टि से विकास करें, यह प्रयास एवं व्यवस्था की जाती है. इसी दृष्टि से कक्षानुसार शारीरिक शिक्षा का पाठ्यक्रम विशेषज्ञों ने बनाया है. शारीरिक शिक्षा का विशेष प्रशिक्षण देने के लिए क्षेत्रशः केंद्र स्थापित किये गए हैं. विद्या भारती राष्ट्रीय खेल-कूद परिषद् का गठन किया जा रहा है.
योग शिक्षा
योग विद्या भारती की प्राचीन विद्या है. विश्व भर में इसको अपनाया जा रहा है. विद्या भारती का प्रयत्न है कि हमारे सभी बालक-बालिकाएं योगाभ्यासी बनें. योग के अभ्यास से शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास उत्तम रीति से होता है – यह विज्ञान से एवं अनुभव से सिद्ध है. प्रत्येक प्रदेश एवं क्षेत्र में योग शिक्षा केंद्र स्थापित किये हैं. जहाँ प्रयोग एवं आचार्य प्रशिक्षण के कार्यक्रम चलते हैं. एक राष्ट्रीय स्तर पर भी योग शिक्षा संस्थान स्थापित करने की योजना विचाराधीन है.
संगीत शिक्षण
संगीत वह कला है जो प्राणी के हृदय के अंतरतम तारों को झंकृत कर देती है. उदात्त भावनाओं के जागरण एवं संस्कार प्रक्रिया के माध्यम के रूप में संगीत का शिक्षण विद्या भारती के सभी विद्यालयों में सारे देश में चलता है. उच्च स्तर के गीत कैसेट तैयार कराए गए हैं. राष्ट्र भक्ति के गीतों का स्वर पूरे भारत में गूंजता है. जन्मदिवस के उत्सव हेतु गीत-कैसेट तैयार कराया है जो घर-घर में बजता है. संगीत शिक्षण का कक्षानुसार पाठ्यक्रम निर्धारित है. सभी भारतीय भाषाओँ में गीत छात्रों में प्रचलित हैं. भाषायें भिन्न हैं किन्तु भाव एक हैं. यह अनुभूति होती है
संस्कृत भाषा
संस्कृत भाषा की ही नहीं विश्व कि अधिकांश भाषाओँ की जननी है. संस्कृत साहित्य में भारतीय संस्कृति एवं भारत के प्राचीन ज्ञान-विज्ञान की निधि भरी पड़ी है. संस्कृत भाषा के ज्ञान के बिना उससे हमारे छात्र अपरिचित रहेंगे. संस्कृत भारत की राष्ट्रीय एकता का सूत्र भी है. विद्या भारती ने इसी कारण संस्कृत भाषा के शिक्षण को अपने विद्यालय में महत्वपूर्ण स्थान दिया है. विद्या भारती संस्कृत विभाग कुरुक्षेत्र में स्थित है. इस विभाग ने सम्भाषण पद्धति के आधार पर “देववाणी संस्कृतम” नाम से पुस्तकों का प्रकाशन भी किया है. संस्कृत के आचार्यों का प्रशिक्षण कार्यक्रम भी इस विभाग के द्वारा संचालित होता है.
नैतिक एवं आध्यात्मिक शिक्षा
बालक देश के भावी कर्णधार हैं. उनके चरित्र बल पर ही देश कि प्रतिष्ठा एवं विकास आधारित है. अतः नैतिकता, राष्ट्रभक्ति आदि मूल्यों की शिक्षा और जीवन के आध्यात्मिक दृष्टिकोण का विकास करने हेतु विद्या भारती ने यह पाठ्यक्रम बनाया है. यह समस्त शिक्षा प्रक्रिया का आधार विषय है. भारतीय संस्कृति, धर्म एवं जीवनादर्शों के अनुरूप बालकों के चरित्र का निर्माण करना विद्या भारती की शिक्षा प्रणाली का मुख्य लक्ष्य है
(1) शारीरिक शिक्षा:- शरीर माद्यं खलुधर्म साधनम् ’’ शरीर सभी धर्मो का साधन है । स्वस्थ काया में स्वस्थ मन निवास करता है । प्रथम सुख निरोगी काया। अनन्त शक्ति ही धर्म है, बल पुण्य एवं दुर्बलता पाप है। अन्नमय कोष का विकास । शारीरिक क्रियाओं द्वारा बालक के सम्पूर्ण व्यक्तित्व, शरीर, मन एवं आत्मा का विकास करना । इससे बालकों में पौरुष , बल एंव शक्ति का विकास होता हैं शारीरिक प्रशिक्षण से निम्न गुणों का विकास सम्मभ है –
(1) सामूहिक भावना, अनुषासन एवं व्यवस्थाप्रियता
(2) खेलों को द्वारा स्फूर्तिबल, निर्णयषक्ति सन्तुलन , साहस , सर्तकता भाव का विकास ।
(3) घुटन एवं निराषा भाव का शमन् ।
(4) क्रियाषीलता – सन्तुलित भोजन, स्वच्छता, विश्राम, व्यायाम, सद्विचार विकास ।
(2) योग शिक्षा:- प्राणषक्ति का विकास-प्राणमय कोष का विकास । प्राणतत्व-क्रियात्मक ऊर्जा का विकास, जीवन शक्ति का विकास। जीवन शक्ति विद्युत केन्द्रों की तरह कार्य करती है नाड़िया विद्युततारेां की भांति इस ऊर्जा को शरीर के समस्त भागों में ले जाती है -अपान, समान,प्राण,उदान, व्यान । यह पांच प्राण शक्ति है ।
देवदत्त,कृकल,कूर्म,नाग, धन०जय यह पांच उपप्राण है। प्राणिक -येाग शिक्षा से इन्द्रियों का विकास एंव चरित्र का विकास सम्भव हे इससे -क्रोध, काम, लोभ, ईष्र्या आदि संवेगों पर नियंत्रण कर उत्साह , क्रियाषीलता , सहनषीलता का गुण विकसित होता है इससे जीवन में आध्यात्मिकता आती है ।
विद्या भारती की शिक्षण पद्दति
विद्या भारती की शिक्षण पद्दति
विद्या भारती पंचपदी की शिक्षण पद्दति
स्वामी विवेकानंद के अनुसार ” मनुष्य के भीतर समस्त ज्ञान अवस्थित है , जरूरत है उसे जागृत करने के लिए उपयुक्त वातावरण निर्मित करने की ” शिक्षा की इस उद्देश्य की प्राप्ति हेतु विद्यालय में शिक्षण भारतीय मनोविज्ञान के सिध्दान्तो पर आधारित पंचपदी शिक्षा पद्दति के द्वारा किया है।.
जिसके निम्नलिखित चरण है.
(1) अधीति – इसके अंतर्गत आचार्य निर्धारित विषय वास्तु को विधियों को अपनाते हुए छात्रो के सम्मुख प्रस्तुत करते है.
(2) बोध – कक्षा कक्ष में ही पठित विषय वास्तु का तात्कालिक लिखित, मौखिक और प्रायोगिक अभ्यास कराया जाता है, जिससे छात्रो को अपने अधिगम का ज्ञान होता है.
(3) अभ्यास – कक्षा कक्ष में सम्पन्न होने वाली अभीती और बोध की प्रक्रिया के पश्चात् छात्रो को विषय वास्तु का ज्ञान विस्तृत और स्थायी करने हेतु गृहकार्य दिया जाता है. जिसका विधिवत निरिक्षण और मूल्याङ्कन किया जाता है.
(4) प्रयोग और प्रसार – छात्र स्वप्रेरणा से अपने अनुसार कार्य करने में आनंद अनुभव करता है, इसलिए विभिन्न विषयों से सम्बंधित विविध पुस्तको, पत्र-पत्रिकाओ आदि सामग्री का अध्ययन कराया जाता है. जिससे छात्र अपने अर्जित ज्ञान का विस्तार व प्रसार करते है.
विद्या भारती
विद्या भारती
विद्या भारती संगठन
बालक ही हमारी आशाओं का केंद्र है. वही हमारे देश, धर्म एवं संस्कृति का रक्षक है. उसके व्यक्तित्व के विकास में हमारी संस्कृति एवं सभ्यता का विकास निहित है. आज का बालक ही कल का कर्णधार है. बालक का नाता भूमि एवं पूर्वजों से जोड़ना, यह शिक्षा का सीधा, सरल तथा सुस्पस्ट लक्ष्य है. शिक्षा और संस्कार द्वारा हमें बालक का सर्वांगीण विकास करना है.
प्रथम सरस्वती शिशु मंदिर –
बस यही स्वप्न लेकर इस शिक्षा क्षेत्र को जीवन साधना समझकर 1952 में, संघ प्रेरणा से कुछ निष्ठावान लोग इस पुनीत कार्य में जुट गए. राष्ट्र निर्माण के इस कार्य में लगे लोगों ने नवोदित पीढ़ी को सुयोग्य शिक्षा और शिक्षा के साथ संस्कार देने के लिए “सरस्वती शिशु मंदिर” की आधारशिला गोरखपुर में पांच रुपये मासिक किराये के भवन में पक्की बाग़ में रखकर प्रथम शिशु मंदिर की स्थापना से श्रीगणेश किया. इससे पूर्व कुरुक्षेत्र में गीता विद्यालय की स्थापना 1946 में हो चुकी थी. मन की आस्था, ह्रदय का विकास,निश्चय की अडिगता तथा कल्पित स्वप्न को मन में लेकर कार्यकर्ताओं के द्वारा अपने विद्यालयों का नाम, विचार कर “सरस्वती शिशु मंदिर” रखा गया. उन्हीं की साधना, तपस्या, परिश्रम व संबल के परिणामस्वरुप स्थान-स्थान पर “सरस्वती शिशु मंदिर” स्थापित होने लगे.
उत्तर प्रदेश में शिशु मंदिरों के संख्या तीव्र गति से बढ़ने लगी. इनके मार्गदर्शन एवं समुचित विकास के लिए 1958 में शिशु शिक्षा प्रबंध समिति नाम से प्रदेश समिति का गठन किया गया. सरस्वती शिशु मंदिरों को सुशिक्षा एवं सद्संस्कारों के केन्द्रों के रूप में समाज में प्रतिष्ठा एवं लोकप्रियता प्राप्त होने लगी. अन्य प्रदेशों में भी जब विद्यालयों की संख्या बढ़ने लगी तो उन प्रदेशों में भी प्रदेश समितियों का गठन हुआ. पंजाब एवं चंडीगढ़ में सर्वहितकारी शिक्षा समिति, हरियाणा में हिन्दू शिक्षा समिति बनी. इसी प्रयत्न ने1977 में अखिल भारतीय स्वरुप लिया और विद्या भारती संस्था का प्रादुर्भाव दिल्ली में हुआ. सभी प्रदेश समितियां विद्या भारती से सम्बद्ध हो गईं.
विद्या भारती — देश का सबसे बड़ा गैर–सरकारी संगठन
आज लक्षद्वीप और मिजोरम को छोड़कर सम्पूर्ण भारत में 86 प्रांतीय एवं क्षेत्रीय समितियां विद्या भारती से संलग्न हैं. इनके अंतर्गत कुल मिलाकर 23320 शिक्षण संस्थाओं में 1,47,634 शिक्षकों के मार्गदर्शन में34 लाख छात्र-छात्राएं शिक्षा एवं संस्कार ग्रहण कर रहे हैं. इनमें से 49 शिक्षक प्रशिक्षक संस्थान एवं महाविद्यालय, 2353 माध्यमिक एवं 923 उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, 633 पूर्व प्राथमिक एवं 5312प्राथमिक, 4164 उच्च प्राथमिक एवं 6127 एकल शिक्षक विद्यालय तथा 3679 संस्कार केंद्र हैं. आज नगरों और ग्रामों में, वनवासी और पर्वतीय क्षेत्रों में झुग्गी-झोंपड़ियों में, शिशु वाटिकाएं, शिशु मंदिर, विद्या मंदिर,सरस्वती विद्यालय, उच्चतर शिक्षा संस्थान, शिक्षक प्रशिक्षण केंद्र और शोध संस्थान हैं. इन सरस्वती मंदिरों की संख्या निरंतर बढ़ रही है. इसके फलस्वरूप अभिभावकों के साथ तथा हिन्दू समाज में निरंतर संपर्क बढ़ रहा है. हिन्दू समाज के हर क्षेत्र में प्रभाव बढ़ा है. आज विद्या भारती भारत में सबसे बड़ा गैर सरकारी शिक्षा संगठन बन गया है.
शिक्षा क्या है
“शिक्षा का व्यापक अर्थ सा विद्या या विमुक्तये “
” शिक्षा एक व्यापक अवधारणा है, जो छात्रों में कुछ सीख सकने के सभी अनुभवों का हवाला देते हुए”
” अनुदेश शिक्षक अथवा अन्य रूपों द्वारा वितरित शिक्षण को कहते है जो अभिज्ञात लक्ष्य की विद्या प्राप्ति को जान बूझ कर सरल बनने को लिए हो”
” शिक्षण एक असल उपदेशक की क्रियाओं को कहते है जो शिक्षण को सुझाने के लिए आकल्पित किया गया हो”
” प्रशिक्षण विशिष्ट ज्ञान, कौशल, या क्षमताओं की सीख के साथ शिक्षार्थियों को तैयार करने की दृष्टि से संदर्भित है, जो कि तुरंत पूरा करने पर लागू किया जा सकता है”
स्वतन्त्रता का अमृत उत्सव
स्वतन्त्रता का अमृत उत्सव मिलकर सभी मनाऐं
हम भारत मां की संताने
हम भारत मां की संताने , हम मातृभूमि हित जीते हैं
जाग उठा भारत फिर से अब जाग उठी तरूणाई
जाग उठा भारत फिर से अब जाग उठी तरूणाई
गीत खुशी के गुनगुनाते बढ़ते जाएँ हम
गीत खुशी के गुनगुनाते बढ़ते जाएँ हम
तन मन धन जीवन अर्पण कर भारत श्रेष्ठ बनाऐंगें
तन मन धन जीवन अर्पण कर भारत श्रेष्ठ बनाऐंगें